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सती का श्राप: मथुरा के सुरीर में महिलाएं नहीं रखती करवाचौथ का व्रत

 संवाददाता - वेद प्रकाश सारस्वत 

सुरीर (मथुरा)। आधुनिक युग में भले ही इंसान चांद तक पहुंच गया हो, लेकिन कान्हा की नगरी मथुरा के कस्बा सुरीर में आज भी एक ऐसा मुहल्ला है जहां की महिलाएं करवाचौथ और अहोई अष्टमी जैसे पर्व नहीं मनातीं। परंपरा के पीछे करीब 200 वर्ष पुरानी घटना और सती का श्राप जुड़ा हुआ माना जाता है।


कस्बा सुरीर के मुहल्ला वघा में रहने वाली महिलाएं सुहाग की लंबी उम्र की कामना का पर्व करवाचौथ नहीं करतीं। यहां नई बहुओं के लिए यह परंपरा चौंकाने वाली होती है। विवाहिता रीता सिंह बताती हैं कि शादी के बाद उनका पहला करवाचौथ था, लेकिन ससुराल में यह पर्व न मनाने की परंपरा सुनकर उन्हें व्रत रखने की इच्छा दबानी पड़ी। इसी तरह सपना नाम की महिला ने बताया कि आठ साल पहले विवाह के बाद पहला करवाचौथ न मना पाने की कसक आज भी उन्हें खलती है।

मुहल्ले की 104 वर्षीय सुनहरी देवी सहित अन्य महिलाएं बताती हैं कि वे करवाचौथ जैसे व्रतों से अधिक अपने परिवार की सलामती और ईश्वर पर भरोसा रखती हैं। रामवती नामक महिला का कहना है कि अब सती माता श्राप नहीं बल्कि आशीर्वाद देती हैं, लेकिन पुरानी परंपरा तोड़ने की हिम्मत किसी में नहीं है।

क्या है श्राप की कहानी?

करीब दो सौ साल पहले नौहझील के रामनगला गांव का एक ब्राह्मण युवक गौना कराकर अपनी पत्नी को सुरीर के रास्ते भैंसा बुग्गी से ले जा रहा था। तभी कुछ ठाकुरों ने विवाद खड़ा कर उसकी हत्या कर दी। पति की मौत देख दुख से व्याकुल पत्नी ने वहीं सती होकर मुहल्ले के लोगों को श्राप दे दिया। कहा जाता है कि इसके बाद कई नवविवाहिताएं असमय विधवा हो गईं और जवान मौतों ने परिवारों का सुख चैन छीन लिया।

श्राप से भयभीत लोगों ने तब से करवाचौथ व अहोई अष्टमी न मनाने का संकल्प ले लिया। यहां की महिलाएं पूरा सोलह श्रृंगार भी नहीं करतीं। वहीं, रामनगला गांव के लोग आज भी सुरीर में खाना-पीना तक नहीं करते और सती माता की मान्यता को निभाते हैं।

सुरीर में सती माता का मंदिर बना हुआ है जहां शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर सभी जातियों के लोग माथा टेककर आशीर्वाद लेने जाते हैं।



बाइट - स्थानीय महिला / पुरुष



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