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पितृपक्ष में बुंदेलखंड की अनूठी परंपरा: बेटियां करती हैं भूले विसरो का तर्पण

Story BY - "Dinesh Savita"



बुंदेलखंड (हमीरपुर)- पितृपक्ष के अवसर पर बुंदेलखंड की मिट्टी में हर साल एक अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। यहां की बेटियां और बालिकाएं कांटों को फूलों से सजा-धजाकर तालाबों व कुओं में विसर्जन करती हैं। यह परंपरा सिर्फ धार्मिक आस्था ही नहीं, बल्कि बेटियों की भागीदारी और परिवार के प्रति उनकी जिम्मेदारी को भी दर्शाती है।गांवों में पितृपक्ष के खास दिन पर तड़के ही घर-घर महिलाएं और लड़कियां फूल तोड़ने निकल जाती हैं। खेतों और बागानों से गेंदा, गुलाब, रातरानी और जंगली फूल तोड़े जाते हैं। इन्हें धागे में पिरोकर कांटों की टहनियों को सजाया जाता है। तैयार किए गए ये फूलों से सजे कांटे एक थाल या टोकरी में रखकर गीत गाते हुए तालाब की ओर ले जाए जाते हैं। इन गीतों में पितरों का स्मरण, आशीर्वाद की कामना और परिवार की खुशहाली की भावना झलकती है।

तालाब किनारे सामूहिक पूजा- तालाब या कुएं के पास पहुंचकर बालिकाएं घेरा बनाकर बैठती हैं। वहां दीपक जलाया जाता है और जल चढ़ाकर कांटों की पूजा की जाती है। इसके बाद सभी बेटियां मिलकर फूलों से सजे कांटों को पानी में प्रवाहित कर देती हैं।

गांव की एक बुजुर्ग महिला बताती हैं- "यह परंपरा सदियों से चल रही है। माना जाता है कि बेटियां जब अपने हाथों से पितरों के नाम कांटे सजाकर विसर्जित करती हैं, तो घर-परिवार पर संकट नहीं आता और पितर खुश रहते हैं।"

वहीं गांव की एक किशोरी कहती है- "हम हर साल यह काम खुशी से करते हैं। हमें लगता है कि जैसे हम अपने दादा-परदादा को याद कर रहे हैं और वे हमें आशीर्वाद दे रहे हैं।"

आस्था के साथ सामाजिक संदेश- यह परंपरा सिर्फ पितृपक्ष की धार्मिक मान्यता तक सीमित नहीं है। इसमें पर्यावरण और समाज के लिए भी बड़ा संदेश है। तालाब और कुएं जैसे पारंपरिक जलस्रोतों से जुड़ने का अवसर मिलता है। साथ ही बेटियां सामूहिकता, जिम्मेदारी और परंपराओं को आगे बढ़ाने का सबक सीखती हैं। "यह परंपरा बेटियों की अहमियत बताती है। समाज में बेटियां पितरों की ओर से घर की रक्षा का प्रतीक मानी जाती हैं। यह रिवाज आने वाली पीढ़ियों को भी अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करता है।" तालाब किनारे यह आयोजन छोटे मेले जैसा बन जाता है। ढोलक और मंजीरे की थाप पर बेटियां गीत गाती हैं, महिलाएं मंगल गीत सुनाती हैं। बच्चे उत्साह से इधर-उधर दौड़ते हैं और बुजुर्ग संतोष भरी नज़र से इस परंपरा को जीवित देखते हैं।इतिहासकारों के मुताबिक यह परंपरा बुंदेलखंड की मिट्टी में गहराई से रची-बसी है। पहले जब जलस्रोत जीवन का आधार थे, तब इस तरह की रस्में बेटियों को प्रकृति से जोड़ती थीं। यही कारण है कि आज भी बुंदेलखंड के गांवों में यह रिवाज बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाया जाता है।

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